Tuesday, July 21, 2009

त्याग की देवी रुद्रमाम्बा

मित्रो, वह युगाब्द 4425 ( सन्‌ 1323 ) की जन्माष्टमी का दिन था। कर्णाटक राज्य की राजधानी द्वारसमुद्र में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाया जा रहा था। कर्णाटक नरेश बल्लाल देव यह उत्सव दूसरी ही तरह मना रहे थे। उस समय उत्तरी भारत आक्रमणकारी सुल्तानों से पदाक्रान्त हो रहा था। कुछ वर्षों पहले अलाउद्दीन खिलजी का एक सरदार मलिक काफ़ूर दक्षिण में भयंकर तबाही कर गया था। गयासुद्दीन तुगलक के सिपहसालार जूना खाँ ने उस समय भी वारंगल को घेर रखा था। देश में आए उस भीषण संकट के समय भी बल्लाल देव को चक्रवर्ती बनने की धुन सवार थी। पाँच राज्यों को वह अब तक जीत चुका था मदुरा और वारंगल उसके अगले निशाने थे। सात राजमुकुटों को अपने पैरों में झुकाकर चक्रवर्ती कहलाने की महत्त्वकांक्षा उसके मन में थी। जन्माष्टमी से पहले उसके सेनापति संगमराय मदुरा के पाण्ड्य संघ के प्रमुख सोमैया नायक को बंदी बना लाए थे। उस दिन कर्णाटक के भरे राजदरबार में छठें राजा पर विजय का उत्सव मनाया जा रहा था।

मलिक काफ़ूर से डट कर लोहा लेने वाले तथा आखिर तक विदेशियों से संघर्ष का संकल्प किए वीरवर सोमैया नायक को महिलाओं के वस्त्रा पहनाकर तथा रस्सियों से बाँधकर दरबार में लाया गया था। केवल उनके हाथ खुले थे। नायक को सामने देखकर बल्ला देव के मंत्री ने कहा -
सोमैया नायक अब तुम कर्णाटक के अनुगत हो, अतः पहले हमारे कुलदेवता को और फ़िर होयसलराज को प्रणाम करो, ताकि तुम्हें बधंन मुक्त किया जा सके। वीरश्रेष्ठ सोमैया नायक कुछ उत्तर देते उसके पहले ही उन्हें बन्दी बनाने वाले संगमराय ने होयसलराज बल्लाव देव से निवेदन किया - महाराज यह क्यों ? आपने मुझे वचन दिया था कि नायक सोमैया से वीरों जैसा व्यवहार करेंगे, पर आप तो इनका अपमान कर रहे हैं।
हम वचन पर दृढ़ हैं, संगमराय । लेकिन पराजित को अपनी मर्यादा का भी तो ध्यान होना चाहिए। हमें प्रणाम करना कोई अपमान की बात तो नहीं। बल्लाल देव ने कहा। तभी सभा-भवन में एक जोरदार अट्टहास गूंजा। यह तीखी हँसी सोमैया नायक की थी। आँखें बंद किए खड़े नायक ने जैसे होयसलराज को चुनौती देते हुए कहा, कौन विजयी और कौन पराजित है, बल्लाव देव, पराजित तो यह ध्रती हो रही है। तुरुष्कों के एक के बाद एक आक्रमण हमारी इस मातृभूमि पर हो रहे हैं और अभी तक हम व्यक्तिगत स्वार्थों में ही डूबे हुए हैं, घोर आश्चर्य है।फ़िर संगमराय को संबोधित करते हुए सोमैया नायक ने कहा - फ्वीरवर संगम, इस पूरी सभा में दर्शनीय व्यक्ति एक तू ही है। जा, मेरी चिन्ता मत कर, मेरे भले-बुरे का दायित्व महाकाल पर है, तुझ पर नहीं।संगमराय ने यह सुना तो होयसलराज से कहा - महाराज सोमैया नायक के अपमान का दुष्परिणाम कर्णाटक को भुगतना होगा इसके बाद वे सभा भवन से चल दिए। बल्लाल देव को सोमैया नायक तथा संगमराय की बातों से क्रोध् आ रहा था। रोष में आकर उन्होंने संगमराय को बंदी बनाने का आदेश दे दिया। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के पावन अवसर पर कुछ अनहोनी होने लगी थी। जैसे ही कुछ सैनिक संगमराय को बन्दी बनाने के लिए आगे बढ़े, सभा-भवन में मजबूत कदकाठी वाला एक तेजस्वी नौजवान प्रकट हुआ। नागिन की तरह लपलपाती एक विकराल तलवार भी उसके हाथ में थी। पूरी राजसभा संगमराय के पुत्र उस तेजस्वी नवयुवक हरिहर को देखकर स्तब्ध् रह गई। सभा में सिंह-गर्जना करते हुए उसने कहा - सावधन होयसलराज। कुछ करने से पहले उसके परिणामों पर भी विचार कर लीजिए। तुरुष्कों ने हमारे देश के उत्तरी भाग को पद-दलित कर दिया है। दक्षिण पर भी उनके आक्रमण फ़िर से प्रारंभ हो गए हैं। हम यूं ही आपस में लड़ते रहे तो पूरा देश पराधीन हो जाएगा। हमारी संस्कृति को यदि जीवित रखना है तो हमें वीरों का सम्मान करना सीखना होगा।
हरिहर का चुनौतीपूर्ण स्वर सुनकर बल्लाल देव और क्रोधित हो गए। क्रोध् में होंठ चबाते हुए उन्होंने कहा, कौन हो तुम ? कैसे इस सभा-भवन में आ गए ? क्या तुम्हें राज-सभा के व्यवहार का तनिक भी ज्ञान नहीं है ? मैं संगमराय का पुत्र हरिहर हूँ, महाराज। जाति से कुरुब (गड़रिया) हूँ इसलिए राजसभाओं के नियमों को क्या जानूँ। पर आप यादव वंश के सूर्य हैं, बल्लाव देव, इसलिए विनती कर रहा हूँ कि सोमैया नायक को वीरोचित सम्मान के साथ मुक्त कर दें और अपनी तलवार के जौहर तुरुष्कों के विरुद्ध दिखाएं, नौजवान ने उत्तर दिया। तनिक-सा रुक कर हरिहर ने फ़िर कहा - आपको वारंगल ही चाहिए था चक्रवर्ती बनने के लिए, कृष्णा जी नायक आपके लिए वारंगल ले आए हैं। यह कहकर हरिहर ने अपने पीछे खड़े कृष्णा जी को संकेत किया। कृष्णा जी के एक हाथ में तलवार और दूसरे में एक गठरी थी। सभाभवन में आगे आकर उन्होंने अपने दोनों हाथ ऊपर किए तो उनकी तलवार से मानों बिजली-सी कौंधने लगी।
होयसलराज मैं आपके लिए वारंगल ले आया हूँ। जानते हैं इस गठरी में क्या है ? देखिए और जरा सावधनी से देखिए, यह कहते हुए उन्होंने तलवार से कपड़ा हटाया तो कृष्णाजी के हाथ में एक कटा हुआ मस्तक दिखाई दिया। सारी राजसभा एकदम से अचंभित और भयग्रस्त हो गई। ऐसी शांति छा गई कि एक सूई भी गिरे तो उसकी आवाज सुनाई दे। कृष्णा जी ने फ़िर कहना शुरु किया - होयसलराज ! यह मस्तक वारंगल के महाराज प्रतापरुद्र का है। तुरुष्कों ने वारंगल को मिट्टी में मिला दिया है। जानते हैं कि यह मस्तक किसने काटा है ? वारंगल की राजमाता रुद्रमाम्बा ने। उनके बूढ़े हाथ अपने पुत्र का मस्तक काटने में जरा भी नहीं काँपे। वारंगल के ध्वस्त होने के पहले राजमाता ने मुझे बुलाया। राजभवन में महाराज प्रतापरुद्र बैठे थे। पास में राजमाता हाथ में तलवार लिए खड़ी थीं। बल्लाव देव! जानते हैं राजमाता ने क्या कहा ?
राजसभा में उस समय उत्तर देने की स्थिति में तो कोई था ही नहीं। सभी पत्थर की मूर्ति बने कृष्णाजी नायक की अद्भुत गाथा को सुन रहे थे। कृष्णा जी ने कहना जारी रखा। राजमाता रुद्रमाम्ब ने मुझसे कहा - श्रीकृष्ण जी, तुरुष्कों से लड़ते हुए हमारे सभी सैनिक मारे गए, कभी भी वारंगल का पतन हो सकता है, जानता है मैंने तुझे क्यों बचा रखा है, इसलिए कि तू अब वारंगल से निकल सके। जा बेटा तूपफान की गति से जाकर होयसलराज को मेरा संदेश दे देना यह कहकर राजमाता ने महाराज प्रतापरुद्र की ओर देखा। महाराज ने हाथ जोड़कर सिर झुका दिया। तब राजमाता ने तलवार के एक वार से महाराज का मस्तक काट लिया और मुझे देते हुए कहा - यादव कुल बसंत बल्लाल को यह मस्तक देना और कहना कि भारत माता के ऋण को उतारने का समय आ गया है, माताएं जिसके लिए पुत्रा को जन्म देती हैं वह उद्देश्य पूरा करने का समय भी अब आ गया है। उनसे कहना कि प्रतापरुद्र का मस्तक प्राप्त कर चक्रवर्ती बनने की इच्छा तो उनकी पूरी हो गई पर विदेशी तुरुष्कों के विरुद्ध एकजुट होने में अब देर न करें। अतः होयसलराज ... कृष्णाजी ने अपना संदेश आगे बढ़ाते हुए कहा, .....यह राजमाता का संदेश मैं आपके लिए लाया हूँ। अब भी आप इस संदेश को नहीं समझेंगे तो दुनिया की कोई शक्ति आपको कुछ नहीं समझा सकती।
होयसलराज वीर बल्लाल ने यह संदेश समझ लिया। उस समय के श्रेष्ठ तपस्वी कालमुख विद्यारण्य महाराज के प्रयत्नों से तुरुष्कों की आंधी को रोकने का एक महान्‌ अभियान दक्षिण में चल रहा था। संगमराय, उनका पुत्रा हरिहर, सोमैया नायक, महाराज प्रतापरुद्र, कृष्णाजी नायक जैसे सेनानी पूरे दक्षिणपथ को संगठित करने में लगे हुए थे। राजमाता रुद्रमाम्बा का विलक्षण संदेश मिलने के बाद बल्लाल देव भी इस अभियान में सम्मिलित हो गए। इसी के परिणामस्वरूप विजयधर्म और विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई। राय हरिहर इसके पहले महामण्डलेश्वर बने।

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